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इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra id dharyoḥ sacā sammiśla ā vacoyujā | indro vajrī hiraṇyayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। इत्। हर्योः॑। सचा॑। सम्ऽमि॑श्लः। आ। व॒चःऽयुजा॑। इन्द्रः॑। व॒ज्री। हि॒र॒ण्ययः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:7» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्व मन्त्र में इन्द्र शब्द से कहे हुए तीन अर्थों में से वायु और सूर्य्य का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जिस प्रकार यह (संमिश्लः) पदार्थों के साथ मिलकर (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य का हेतु स्पर्शगुणवाला वायु, अपने (सचा) सब में मिलनेवाले और (वचोयुजा) वाणी के व्यवहार को वर्त्तानेवाले (हर्य्योः) हरने और प्राप्त करनेवाले गुणों को (आ) सब पदार्थों में युक्त करता है, वैसे ही (वज्री) संवत्सर वा तापवाला (हिरण्ययः) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रः) सूर्य्य भी अपने हरण और आहरण गुणों को सब पदार्थों में युक्त करता है॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु के संयोग से वचन, श्रवण आदि व्यवहार तथा सब पदार्थों के गमन, आगमन, धारण और स्पर्श होते हैं, वैसे ही सूर्य्य के योग से पदार्थों के प्रकाश और छेदन भी होते हैं। संमिश्लः इस शब्द में सायणाचार्य्य ने लकार का होना छान्दस माना है, सो उनकी भूल है, क्योंकि संज्ञाछन्द० इस वार्त्तिक से लकारादेश सिद्ध ही है॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्तेषु त्रिषु प्रथमतो वायुसूर्य्यावुपदिश्येते।

अन्वय:

यथाऽयं संमिश्ल इन्द्रो वायुः सचा सचयोर्वचोयुजा वचांसि योजयतोर्हर्य्यो गमनागमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्य्यलोकश्च॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) वायुः (इत्) एव (हर्य्योः) हरणाहरणगुणयोः (सचा) समवेतयोः (संमिश्लः) पदार्थेषु सम्यक् मिश्रो मिलितः सन्। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा०८.२.१८) अनेन वार्तिकेन रेफस्य लत्वादेशः। (आ) समन्तात् (वचोयुजा) वाणीर्योजयतोः। अत्र सुपां सुलुगिति षष्ठीद्विवचनस्याकारादेशः। (इन्द्रः) सूर्य्यः (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः। संवत्सरो हि वज्रः। (श०ब्रा०३.३.५.१५) (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेन हिरण्यमयशब्दस्य मलोपो निपात्यते। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श०ब्रा०४.३.१.२१)॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुयोगेनैव वचनश्रवणव्यवहारसर्वपदार्थगमनागमनधारणस्पर्शाः सम्भवन्ति तथैव सूर्य्ययोगेन पदार्थप्रकाशनछेदने च। ‘संमिश्लः’ इत्यत्र सायणाचार्य्येण लत्वं छान्दसमिति वार्तिकमविदित्वा व्याख्यातम्, तदशुद्धम्॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूच्या संयोगाने भाषण, श्रवण इत्यादी व्यवहार व सर्व पदार्थांचे गमन आगमन धारण व स्पर्श होतो, तसेच सूर्यामुळे पदार्थांना प्रकाश मिळतो व ते खंडितही होतात.
टिप्पणी: ‘संमिश्ल’ या शब्दात सायणाचार्याने लकार होणे छान्दस मानलेले आहे. ती त्यांची चूक आहे. कारण ‘संज्ञाछन्द. ’ या वार्तिकाने लकारादेश सिद्धच आहे. ॥ २ ॥